वाचक, लक्षक और व्यंजक शब्द
परिस्थिति और प्रयोग के आधार पर शब्द–भेद:
परिस्थिति और प्रयोग की दृष्टि से शब्द के तीन प्रकार होते हैँ–
1. वाचक शब्द–
जो शब्द केवल अपने सांकेतिक अर्थ ही प्रदान करते हैँ, उन्हेँ वाचक शब्द कहा जाता है। प्रत्येक शब्द मेँ तत्सम्बद्ध भाषा–भाषी समाज द्वारा किसी न किसी भाव, विचार, वस्तु, स्थान अथवा व्यक्ति का संकेत निहित कर दिया जाता है। जब कोई शब्द केवल उस संकेत का ही बोध कराता है, तब उसे वाचक, सांकेतिक या अभिधेय कहा जाता है। जैसे– राम, पुस्तक, कुर्सी, झुन्झुनूं, लड़का आदि। जब उक्त शब्दोँ का वाक्योँ मेँ वही अर्थ होता है, जो सांकेतिक है, तब इनकी वाचक संज्ञा होगी। यदि कोई मित्र अर्थ प्रदान करेगा तो संज्ञा परिवर्तित हो जायेगी। वाचक शब्द से व्यक्त अर्थ को वाच्यार्थ, मुख्यार्थ या संकेतार्थ कहा जाता है।
2. लक्षक शब्द–
वाच्यार्थ का बोध हो जाने पर जब किसी शब्द का सादृश्य से इतर, मुख्यार्थ से सम्बद्ध कोई अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है, तब उस शब्द को लक्षक और अर्थ को लक्ष्यार्थ कहा जाता है। जैसे– कोई कहता है कि राम गधा है। तो वाक्य मेँ प्रयुक्त ‘गधा’ शब्द के मुख्यार्थ चार पैरोँ वाला, लम्बे कानोँ वाला, भारवाही पशु विशेष के लिए होता है, जबकि ‘राम’ शब्द का प्रयोग एक मनुष्य विशेष के लिए हुआ है। अतः राम शब्द के अर्थ के साथ ‘गधा’ शब्द के अर्थ की संगति नहीँ बैठ रही है। फलतः मुख्यार्थ बोध हो जाने से ‘गधा’ शब्द का अर्थ ‘मूर्खता’ से लिया गया है, जो मुख्यार्थ के साथ गुणावगुणी भाव से सम्बन्धित है। अतः यहाँ पर ‘गधा’ शब्द लक्षक एवं ‘मूर्ख’ लक्ष्यार्थ है।
वाच्यार्थ का बोध हो जाने पर जब किसी शब्द का सादृश्य से इतर, मुख्यार्थ से सम्बद्ध कोई अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है, तब उस शब्द को लक्षक और अर्थ को लक्ष्यार्थ कहा जाता है। जैसे– कोई कहता है कि राम गधा है। तो वाक्य मेँ प्रयुक्त ‘गधा’ शब्द के मुख्यार्थ चार पैरोँ वाला, लम्बे कानोँ वाला, भारवाही पशु विशेष के लिए होता है, जबकि ‘राम’ शब्द का प्रयोग एक मनुष्य विशेष के लिए हुआ है। अतः राम शब्द के अर्थ के साथ ‘गधा’ शब्द के अर्थ की संगति नहीँ बैठ रही है। फलतः मुख्यार्थ बोध हो जाने से ‘गधा’ शब्द का अर्थ ‘मूर्खता’ से लिया गया है, जो मुख्यार्थ के साथ गुणावगुणी भाव से सम्बन्धित है। अतः यहाँ पर ‘गधा’ शब्द लक्षक एवं ‘मूर्ख’ लक्ष्यार्थ है।
3. व्यंजक शब्द–
किसी शब्द के मुख्यार्थ बोध होने पर लक्ष्यार्थ अथवा मुख्यार्थ के पश्चात् किसी चमत्कारपूर्ण अर्थ को ग्रहण किया जाता है, तब उस शब्द की व्यंजक संज्ञा होती है। इस प्रकार व्यंजक शब्द दो प्रकार से व्यंग्यार्थ का बोध कराता है– (1) लक्ष्यार्थ के पश्चात् (2) मुख्यार्थ के पश्चात्। प्रथम का उदाहरण– ‘गंगा में घर है।’ वाक्य मेँ ‘गंगा’ शब्द लक्षक और व्यंजक दोनोँ प्रकार है। पहले ‘गंगा’ शब्द का सादृश्येतर समीप, सामीप्य भाव सम्बन्ध से ‘गंगा का तट’ अर्थ लक्ष्यार्थ हुआ। तत्पश्चात् ‘शीतल एवं स्वास्थ्यवर्धक स्थल’ चमत्कारपूर्ण अर्थ व्यंग्यार्थ होने से ‘गंगा’ शब्द व्यंजक हो गया। द्वितीय वर्ग का उदाहरण–‘सूर्यास्त हो गया है।’ वाक्य का मुख्यार्थ के साथ–साथ भोजन पकाने का समय हो गया। पढ़ना बन्द करने का समय हो गया है और भ्रमण का समय हो गया आदि अनेक अर्थोँ की प्राप्ति होती है। यहाँ पर वे अर्थ बिना मुख्यार्थ बोध के ही प्राप्त हो रहे हैँ। अतः यहाँ पर ‘सूर्यास्त’ शब्द दूसरे प्रकार का व्यंजक शब्द है।
किसी शब्द के मुख्यार्थ बोध होने पर लक्ष्यार्थ अथवा मुख्यार्थ के पश्चात् किसी चमत्कारपूर्ण अर्थ को ग्रहण किया जाता है, तब उस शब्द की व्यंजक संज्ञा होती है। इस प्रकार व्यंजक शब्द दो प्रकार से व्यंग्यार्थ का बोध कराता है– (1) लक्ष्यार्थ के पश्चात् (2) मुख्यार्थ के पश्चात्। प्रथम का उदाहरण– ‘गंगा में घर है।’ वाक्य मेँ ‘गंगा’ शब्द लक्षक और व्यंजक दोनोँ प्रकार है। पहले ‘गंगा’ शब्द का सादृश्येतर समीप, सामीप्य भाव सम्बन्ध से ‘गंगा का तट’ अर्थ लक्ष्यार्थ हुआ। तत्पश्चात् ‘शीतल एवं स्वास्थ्यवर्धक स्थल’ चमत्कारपूर्ण अर्थ व्यंग्यार्थ होने से ‘गंगा’ शब्द व्यंजक हो गया। द्वितीय वर्ग का उदाहरण–‘सूर्यास्त हो गया है।’ वाक्य का मुख्यार्थ के साथ–साथ भोजन पकाने का समय हो गया। पढ़ना बन्द करने का समय हो गया है और भ्रमण का समय हो गया आदि अनेक अर्थोँ की प्राप्ति होती है। यहाँ पर वे अर्थ बिना मुख्यार्थ बोध के ही प्राप्त हो रहे हैँ। अतः यहाँ पर ‘सूर्यास्त’ शब्द दूसरे प्रकार का व्यंजक शब्द है।
♦ शब्द–रूप:
शब्द भाषा की स्वतंत्र इकाइयाँ हैँ। परन्तु इन स्वतंत्र शब्दोँ को एक–एक करके एक साथ रखने से सार्थक वाक्य नहीँ बनते। शब्दोँ को वाक्योँ मेँ प्रयोग करने से पहले उनको ‘पद’ बनाया जाता है। पद बनाने हेतु स्वतंत्र शब्दोँ मेँ प्रत्यय, उपसर्ग आदि जोड़े जाते हैँ। जैसे– राम बाण रावण मारा, मेँ शब्दोँ को यथावत् एक साथ रखा गया है परंतु यह सार्थक वाक्य नहीँ है। यदि इन शब्दोँ मेँ हम प्रत्यय, विभक्ति जोड़ देँ तो वाक्य बनेगा—राम ने बाण से रावण को मारा। शब्द मेँ परसर्ग, प्रत्यय आदि जोड़ने से ‘पद’ बनता है। इस प्रकार ‘पद’ शब्द का वह रूप है जिसे शब्द मेँ प्रत्यय व विभक्तियाँ लगाकर वाक्य मेँ प्रयुक्त होने योग्य बनाया जाता है। अर्थात् शब्द के वाक्य मेँ प्रयुक्त होने वाले विभिन्न रूप ही ‘पद’ कहे जाते हैँ। पदोँ को ही शब्द–रूप कहा जाता है। संक्षेप मेँ भाषा के लघुत्तम सार्थक खण्डोँ को शब्द–रूप कहते हैँ।
शब्द भाषा की स्वतंत्र इकाइयाँ हैँ। परन्तु इन स्वतंत्र शब्दोँ को एक–एक करके एक साथ रखने से सार्थक वाक्य नहीँ बनते। शब्दोँ को वाक्योँ मेँ प्रयोग करने से पहले उनको ‘पद’ बनाया जाता है। पद बनाने हेतु स्वतंत्र शब्दोँ मेँ प्रत्यय, उपसर्ग आदि जोड़े जाते हैँ। जैसे– राम बाण रावण मारा, मेँ शब्दोँ को यथावत् एक साथ रखा गया है परंतु यह सार्थक वाक्य नहीँ है। यदि इन शब्दोँ मेँ हम प्रत्यय, विभक्ति जोड़ देँ तो वाक्य बनेगा—राम ने बाण से रावण को मारा। शब्द मेँ परसर्ग, प्रत्यय आदि जोड़ने से ‘पद’ बनता है। इस प्रकार ‘पद’ शब्द का वह रूप है जिसे शब्द मेँ प्रत्यय व विभक्तियाँ लगाकर वाक्य मेँ प्रयुक्त होने योग्य बनाया जाता है। अर्थात् शब्द के वाक्य मेँ प्रयुक्त होने वाले विभिन्न रूप ही ‘पद’ कहे जाते हैँ। पदोँ को ही शब्द–रूप कहा जाता है। संक्षेप मेँ भाषा के लघुत्तम सार्थक खण्डोँ को शब्द–रूप कहते हैँ।
शब्द–रूप दो प्रकार के होते हैँ– (1) संरूप (2) रूपिम। प्रकार एवं प्रयोग की दृष्टि से एक ही शब्द के अनेक शब्द–रूप बनाये जा सकते हैँ, जैसे– लड़का, शब्द से लड़का, लड़के, लड़कोँ आदि तथा पढ़ना शब्द मेँ प्रत्यय लगाकर पढ़ना (शून्य प्रत्यय), पढ़, पढ़ेँ, पढ़ो, पढ़ा, पढ़िये आदि अनेक शब्द–रूप बनाये जा सकते हैँ। शब्द–रूप बनाने की यह प्रक्रिया ‘शब्द–रूप निर्माण’ कहलाती है। इसे ‘शब्द साधन’ या ‘व्युत्पादन’ भी कहते हैँ। जब भी शब्दोँ को वाक्योँ मेँ प्रयोग करते हैँ, उनमेँ कोई न कोई प्रत्यय अवश्य जोड़ा जाता है। कई बार शून्य प्रत्यय जोड़कर भी वाक्य बनाया जाता है। जैसे– ‘लड़का’ मेँ शून्य प्रत्यय जोड़कर वाक्य बनाया– लड़का विद्यालय जाता है।
शब्द–रूप निर्माण प्रक्रिया द्वारा नये शब्दोँ का निर्माण नहीँ होता बल्कि ये तो उसी मूल शब्द के विभिन्न रूप होते हैँ, जो वाक्य मेँ अलग–अलग व्याकरणिक कार्य करते हैँ।
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