शब्द–शक्तियाँ
शब्द–शक्ति
बुद्धि का वह व्यापार या क्रिया जिसके द्वारा किसी शब्द का निश्चयार्थक ज्ञान होता है, अर्थात् अमुक शब्द का निश्चित अर्थ यह है—इस तरह का स्थायी ज्ञान जिस शब्द–व्यापार से मानस मेँ संस्कार रूप मेँ समाविष्ट होता है, उसे शब्द–शक्ति कहते हैँ।
वाक्य मेँ सदा सार्थक शब्द का प्रयोग होता है। वाक्य मेँ प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का प्रयोग के अनुसार अर्थ बतलाने वाली वृत्ति को उसकी शक्ति अर्थात् शब्द–शक्ति या शब्द–वृत्ति कहते हैँ।
शब्द–शक्ति के द्वारा व्यक्त अर्थ शब्द की परिस्थिति और प्रयोग के अनुसार तीन प्रकार के होते हैँ—
1. वाच्यार्थ—शब्द का मुख्य, प्रधान अथवा प्रचलित अर्थ वाच्यार्थ कहलाता है।
2. लक्ष्यार्थ—शब्द का अमुख्य या अप्रधान अर्थ लक्ष्यार्थ कहलाता है।
3. व्यंग्यार्थ—देश–काल एवं प्रसंग के अनुसार लगाया गया अन्यार्थ या प्रतीयमानार्थ व्यंग्यार्थ कहलाता है।
1. वाच्यार्थ—शब्द का मुख्य, प्रधान अथवा प्रचलित अर्थ वाच्यार्थ कहलाता है।
2. लक्ष्यार्थ—शब्द का अमुख्य या अप्रधान अर्थ लक्ष्यार्थ कहलाता है।
3. व्यंग्यार्थ—देश–काल एवं प्रसंग के अनुसार लगाया गया अन्यार्थ या प्रतीयमानार्थ व्यंग्यार्थ कहलाता है।
इस तरह तीनोँ प्रकार के अर्थ प्रकट करने वाली तीन शब्द–शक्तियाँ होती हैँ—
(1) अभिधा—वाच्यार्थ को प्रकट करने वाली शब्द–शक्ति
(2) लक्षणा—लक्ष्यार्थ को व्यक्त करने वाली शब्द–शक्ति
(3) व्यंजना—व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने वाली शब्द–शक्ति।
(1) अभिधा—वाच्यार्थ को प्रकट करने वाली शब्द–शक्ति
(2) लक्षणा—लक्ष्यार्थ को व्यक्त करने वाली शब्द–शक्ति
(3) व्यंजना—व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने वाली शब्द–शक्ति।
1. अभिधा शक्ति –
जिस शक्ति के द्वारा शब्द के साक्षात् संकेतित अर्थ का बोध होता है, उसे अभिधा कहते हैँ। साक्षात् संकेतित अर्थ को शब्द का मुख्यार्थ माना जाता है। अतएव शब्द के मुख्य अर्थ का बोध कराने के कारण यह मुख्या, आद्या या प्रथमा शब्द–शक्ति भी कहलाती है।
जिस शक्ति के द्वारा शब्द के साक्षात् संकेतित अर्थ का बोध होता है, उसे अभिधा कहते हैँ। साक्षात् संकेतित अर्थ को शब्द का मुख्यार्थ माना जाता है। अतएव शब्द के मुख्य अर्थ का बोध कराने के कारण यह मुख्या, आद्या या प्रथमा शब्द–शक्ति भी कहलाती है।
जब व्याकरण–ज्ञान, उपमान, शब्द–कोश, व्यवहार–प्रयोग तथा विश्वस्त व्यक्ति माता–पिता व गुरुजन आदि के द्वारा बताया जाता है कि अमुक शब्द का अमुक अर्थ है, अथवा इस शब्द का इस अर्थ मेँ प्रयोग किया जाता है, तो उस प्रक्रिया को ‘संकेतित अर्थ’ कहते हैँ। प्रारम्भ मेँ उक्त ज्ञान–विधियोँ से अवबोध होने पर संकेतित शब्दार्थ का मानस मेँ स्थायी संस्कार बन जाता है। अतः जब–जब कोई शब्द उसके सामने आता है तो तुरन्त ही उसका अर्थ मानस मेँ व्यक्त या उपस्थित हो जाता है। उसे ही मुख्यार्थ, वाच्यार्थ या अभिधेयार्थ कहते हैँ। जैसे–
(क) राम पुस्तक पढ़ता है।
(ख) किसान खेत पर हल चलाता है।
(ग) बालक प्रतिदिन विद्यालय जाता है।
(क) राम पुस्तक पढ़ता है।
(ख) किसान खेत पर हल चलाता है।
(ग) बालक प्रतिदिन विद्यालय जाता है।
अभिधा शक्ति द्वारा जिन शब्दोँ का अर्थ–बोध होता है, उन्हेँ ‘वाचक’ कहा जाता है। इससे अनेकार्थवाची शब्दोँ के अर्थ का निर्णय किया जाता है। वाचक शब्द तीन प्रकार के होते हैँ –
(i) रूढ—जिन शब्दोँ का विश्लेषण या व्युत्पत्ति सम्भव न हो तथा जिनका अर्थबोध समुदाय–शक्ति द्वारा हो, वे रूढ कहलाते हैँ।
(ii) यौगिक—जो शब्द प्रकृति और प्रत्यय के योग से निर्मित होँ और उनका विश्लेषण सम्भव हो तथा उनका अर्थबोध प्रकृति–प्रत्यय की शक्ति से हो, वे यौगिक कहलाते हैँ।
(iii) योगरुढ—जिन शब्दोँ की संरचना यौगिक शब्दोँ के समान होती है तथा अर्थबोध रूढ को समान होता है, उन्हेँ योगरूढ कहते हैँ। तात्पर्य यह है कि जो शब्द प्रकृति एवं प्रत्यय के योग से निर्मित होँ, लेकिन अर्थबोध प्रकृति एवं प्रत्यय की शक्ति द्वारा न होकर समुदाय–शक्ति द्वारा हो, वे योगरूढ कहलाते हैँ। जैसे– ‘जलज’ शब्द जल+ज अर्थात् ‘जल मेँ उत्पन्न होने वाला’ इस प्रकार व्युत्पन्न होता है। यदि इसे यौगिक माना जाये, तो इससे उन सभी वस्तुओँ का बोध होगा, जो जल मेँ उत्पन्न होते हैँ; जैसे– सीपी, घोँघा, मेँढक, शैवाल आदि। लेकिन ‘जलज’ शब्द केवल ‘कमल’ का बोध कराता है और वह अर्थबोध की दृष्टि से रुढ है। ऐसे शब्द योगरूढ कहलाते हैँ।
(i) रूढ—जिन शब्दोँ का विश्लेषण या व्युत्पत्ति सम्भव न हो तथा जिनका अर्थबोध समुदाय–शक्ति द्वारा हो, वे रूढ कहलाते हैँ।
(ii) यौगिक—जो शब्द प्रकृति और प्रत्यय के योग से निर्मित होँ और उनका विश्लेषण सम्भव हो तथा उनका अर्थबोध प्रकृति–प्रत्यय की शक्ति से हो, वे यौगिक कहलाते हैँ।
(iii) योगरुढ—जिन शब्दोँ की संरचना यौगिक शब्दोँ के समान होती है तथा अर्थबोध रूढ को समान होता है, उन्हेँ योगरूढ कहते हैँ। तात्पर्य यह है कि जो शब्द प्रकृति एवं प्रत्यय के योग से निर्मित होँ, लेकिन अर्थबोध प्रकृति एवं प्रत्यय की शक्ति द्वारा न होकर समुदाय–शक्ति द्वारा हो, वे योगरूढ कहलाते हैँ। जैसे– ‘जलज’ शब्द जल+ज अर्थात् ‘जल मेँ उत्पन्न होने वाला’ इस प्रकार व्युत्पन्न होता है। यदि इसे यौगिक माना जाये, तो इससे उन सभी वस्तुओँ का बोध होगा, जो जल मेँ उत्पन्न होते हैँ; जैसे– सीपी, घोँघा, मेँढक, शैवाल आदि। लेकिन ‘जलज’ शब्द केवल ‘कमल’ का बोध कराता है और वह अर्थबोध की दृष्टि से रुढ है। ऐसे शब्द योगरूढ कहलाते हैँ।
अभिधा शक्ति के द्वारा साक्षात् संकेतित अर्थ का ग्रहण चार प्रकार से होता है –
(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा (द्रव्यवाचक)
(2) जातिवाचक संज्ञा
(3) गुणवाचक (विशेषण)
(4) क्रियावाचक।
(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा (द्रव्यवाचक)
(2) जातिवाचक संज्ञा
(3) गुणवाचक (विशेषण)
(4) क्रियावाचक।
इन चार प्रकार के शब्दोँ से संकेतग्रह होने से वाच्यार्थ का बोध होता है।
उदाहरणार्थ—
‘खेत मेँ गाय चर रही थी।’ इस वाक्य मेँ सीधा–सादा अर्थ समझ मेँ आता है कि खेत मेँ गाय चर रही है।
उदाहरणार्थ—
‘खेत मेँ गाय चर रही थी।’ इस वाक्य मेँ सीधा–सादा अर्थ समझ मेँ आता है कि खेत मेँ गाय चर रही है।
‘लाल घोड़ा सरपट दौड़ रहा था।’ इस वाक्य मेँ घोड़े के दौड़ने का अर्थ सहज मेँ प्रकट हो रहा है।
उक्त उदाहरणोँ मेँ गाय और घोड़ा जातिवाचक संज्ञा हैँ, परन्तु उनका आकार भिन्न है। ‘चरना’ और ‘दौड़ना’ क्रियाएँ हैँ। घोड़े के लिए ‘लाल’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार अभिधा शक्ति से शब्द के प्रधान अर्थ अर्थात् वाच्यार्थ का ही ग्रहण होता है।
2. लक्षणा शक्ति –
वाक्य मेँ मुख्यार्थ का बाध होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति द्वारा मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ या लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, उसे लक्षणा शक्ति कहा जाता है। लक्षणा शब्द–व्यापार साक्षात् संकेतित न होकर आरोपित व्यापार है।
उदाहरण—“रामदीन तो गाय है, उसे मत सताओ।” इस वाक्य मेँ अभिधा से गाय का अर्थ चौपाया पशु होता है, परन्तु रामदीन चौपाया पशु नहीँ हो सकता। उस दशा मेँ ‘गाय’ का मुख्य अर्थ बाधित या छोड़ा जाता है तब उसी मुख्य अर्थ के सहयोग से गाय के स्वभाव (गुण) के अनुरूप “रामदीन अतीव भोला और सरल स्वभाव वाला है”—यह अर्थ ग्रहण किया जाता है। इस तरह लक्षणा से मुख्यार्थ बाधित होता है और उससे सम्बन्धित अन्य अर्थ—लक्ष्यार्थ या लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है। इसे आरोपित अर्थ भी कहते है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण हैँ –
• वह लड़का शेर है।
• यह लड़की तो गाय है।
• राजस्थान वीर है।
• रमेश का घर मुख्य सड़क पर ही है।
• लाल पगड़ी जा रही है।
वाक्य मेँ मुख्यार्थ का बाध होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति द्वारा मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ या लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, उसे लक्षणा शक्ति कहा जाता है। लक्षणा शब्द–व्यापार साक्षात् संकेतित न होकर आरोपित व्यापार है।
उदाहरण—“रामदीन तो गाय है, उसे मत सताओ।” इस वाक्य मेँ अभिधा से गाय का अर्थ चौपाया पशु होता है, परन्तु रामदीन चौपाया पशु नहीँ हो सकता। उस दशा मेँ ‘गाय’ का मुख्य अर्थ बाधित या छोड़ा जाता है तब उसी मुख्य अर्थ के सहयोग से गाय के स्वभाव (गुण) के अनुरूप “रामदीन अतीव भोला और सरल स्वभाव वाला है”—यह अर्थ ग्रहण किया जाता है। इस तरह लक्षणा से मुख्यार्थ बाधित होता है और उससे सम्बन्धित अन्य अर्थ—लक्ष्यार्थ या लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है। इसे आरोपित अर्थ भी कहते है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण हैँ –
• वह लड़का शेर है।
• यह लड़की तो गाय है।
• राजस्थान वीर है।
• रमेश का घर मुख्य सड़क पर ही है।
• लाल पगड़ी जा रही है।
उपर्युक्त वाक्योँ मेँ लड़के को शेर कहने से ‘शेर’ का अर्थ साहसी या वीर लिया गया है। अतएव उस पर शेर का आरोप किया गया है। लड़की को गाय कहने से ‘गाय’ का अर्थ सीधी–सरल है। ‘राजस्थान’ कोई आदमी नहीँ है जो वीर हो, अतः राजस्थान का लक्ष्यार्थ राजस्थान–निवासी जन है। रमेश का घर मुख्य सड़क अर्थात् सड़क के मध्य मेँ नहीँ हो सकता, अतः मुख्य सड़क के किनारे पर—उससे अत्यन्त निकट अर्थ के लिये ऐसा कहा गया है। ‘लाल पगड़ी’ स्वयं तो नहीँ जा सकती, क्योँकि वह अचेतन है, इसलिए लाल पगड़ी को पहनने वाला व्यक्ति अर्थात् पुलिस वाला जा रहा है। ये सभी अर्थ लक्षणा शक्ति से ही लिये गये हैँ।
लक्षणा शक्ति मेँ तीन बाज अथवा तीन कारण या बातेँ आवश्यक हैँ –
(1) मुख्यार्थ का बाध –
जब शब्द के मुख्यार्थ की प्रतीति मेँ कोई प्रत्यक्ष विरोध दिखाई दे तो उसे मुख्यार्थ का बाध कहते हैँ। जैसे—“गंगा पर घर है।” इस वाक्य मेँ ‘गंगा पर’ शब्द का मुख्यार्थ है– गंगा नदी का प्रवाह, लेकिन प्रवाह पर घर नहीँ हो सकता, अतः यहाँ मुख्यार्थ मेँ बाध है।
(2) लक्ष्यार्थ का मुख्यार्थ से सम्बन्ध –
मुख्यार्थ मेँ बाध उपस्थित होने पर लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, लेकिन लक्ष्यार्थ का मुख्यार्थ से सम्बन्ध होना आवश्यक है। इसी को मुख्यार्थ का योग कहते हैँ। जैसे—“गंगा पर घर है” वाक्य मेँ ‘गंगा पर’ का लक्ष्यार्थ ‘गंगा के तट पर’ लिया जाता है।
(3) लक्ष्यार्थ के मूल मेँ रूढ़ि या प्रयोजन का होना –
लक्ष्यार्थ ग्रहण के मूल मेँ कोई रूढ़ि या प्रयोजन होना आवश्यक है। रूढ़ि का अर्थ है—प्रचलन या प्रसिद्धि। प्रयोजन का आशय है—फल–विशेष या उद्देश्य। जैसे –
फूली सकल मन कामना लूट्यौ अनगिनत चैन।
आजु अचै हरिरूप सखि भये प्रफुल्लित नैन॥
प्रस्तुत पद्यांश मेँ ‘मनोकामना’ कोई वृक्ष नहीँ है कि वह फूले–फले और चैन यानी आनन्द कोई धन–सम्पत्ति नहीँ है कि वह लूटा जा सके। श्रीकृष्ण का रूप कोई पेय पदार्थ नहीँ है कि उसका आचमन किया जाये। इस प्रकार मुख्यार्थ बाध करके उसके सहयोग से इसका अर्थ लक्ष्यार्थ मेँ ग्रहण किया जाता है।
(1) मुख्यार्थ का बाध –
जब शब्द के मुख्यार्थ की प्रतीति मेँ कोई प्रत्यक्ष विरोध दिखाई दे तो उसे मुख्यार्थ का बाध कहते हैँ। जैसे—“गंगा पर घर है।” इस वाक्य मेँ ‘गंगा पर’ शब्द का मुख्यार्थ है– गंगा नदी का प्रवाह, लेकिन प्रवाह पर घर नहीँ हो सकता, अतः यहाँ मुख्यार्थ मेँ बाध है।
(2) लक्ष्यार्थ का मुख्यार्थ से सम्बन्ध –
मुख्यार्थ मेँ बाध उपस्थित होने पर लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, लेकिन लक्ष्यार्थ का मुख्यार्थ से सम्बन्ध होना आवश्यक है। इसी को मुख्यार्थ का योग कहते हैँ। जैसे—“गंगा पर घर है” वाक्य मेँ ‘गंगा पर’ का लक्ष्यार्थ ‘गंगा के तट पर’ लिया जाता है।
(3) लक्ष्यार्थ के मूल मेँ रूढ़ि या प्रयोजन का होना –
लक्ष्यार्थ ग्रहण के मूल मेँ कोई रूढ़ि या प्रयोजन होना आवश्यक है। रूढ़ि का अर्थ है—प्रचलन या प्रसिद्धि। प्रयोजन का आशय है—फल–विशेष या उद्देश्य। जैसे –
फूली सकल मन कामना लूट्यौ अनगिनत चैन।
आजु अचै हरिरूप सखि भये प्रफुल्लित नैन॥
प्रस्तुत पद्यांश मेँ ‘मनोकामना’ कोई वृक्ष नहीँ है कि वह फूले–फले और चैन यानी आनन्द कोई धन–सम्पत्ति नहीँ है कि वह लूटा जा सके। श्रीकृष्ण का रूप कोई पेय पदार्थ नहीँ है कि उसका आचमन किया जाये। इस प्रकार मुख्यार्थ बाध करके उसके सहयोग से इसका अर्थ लक्ष्यार्थ मेँ ग्रहण किया जाता है।
किसी भी शब्द से लक्षणा द्वारा लक्षित अर्थ या तो रूढ़ि के कारण निकलता है या किसी प्रयोजन के कारण। अतः लक्षणा के मुख्य दो भेद होते हैँ—
(1) रूढ़ि लक्षणा –
जहाँ रुढ़ि या रचनाकारोँ की परम्परा के अनुसार मुख्य अर्थ छोड़कर कोई दूसरा अर्थ लिया जाता है, अर्थात् मुख्य अर्थ मेँ बाधा उपस्थित होने पर लक्ष्यार्थ लिया जाता है, वहाँ पर रूढ़ि लक्षणा मानी जाती है। जैसे—“कलिंग साहसी है।” इस वाक्य मेँ ‘कलिँग’ एक भूभाग या देश का नाम होने से उसका मुख्यार्थ बाधित हो रहा है, क्योँकि देश अचेतन होने से साहसी नहीँ हो सकता। इसलिए लक्षणा से यहाँ ‘कलिँग देश के निवासी’ अर्थ लिया जाता है। इसी प्रकार कुशल, लावण्य, प्रवीण आदि शब्द भी रूढ़ि लक्षणा से अर्थ प्रकट करते हैँ।
जहाँ रुढ़ि या रचनाकारोँ की परम्परा के अनुसार मुख्य अर्थ छोड़कर कोई दूसरा अर्थ लिया जाता है, अर्थात् मुख्य अर्थ मेँ बाधा उपस्थित होने पर लक्ष्यार्थ लिया जाता है, वहाँ पर रूढ़ि लक्षणा मानी जाती है। जैसे—“कलिंग साहसी है।” इस वाक्य मेँ ‘कलिँग’ एक भूभाग या देश का नाम होने से उसका मुख्यार्थ बाधित हो रहा है, क्योँकि देश अचेतन होने से साहसी नहीँ हो सकता। इसलिए लक्षणा से यहाँ ‘कलिँग देश के निवासी’ अर्थ लिया जाता है। इसी प्रकार कुशल, लावण्य, प्रवीण आदि शब्द भी रूढ़ि लक्षणा से अर्थ प्रकट करते हैँ।
(2) प्रयोजनवती लक्षणा –
मुख्यार्थ के बाधित होने पर किसी प्रयोजन के द्वारा अर्थ ग्रहण होने पर प्रयोजनवती लक्षणा होती है। जैसे—“गंगा पर बस्ती है।” गंगा की धारा पर बस्ती नहीँ ठहर सकती, इसलिए मुख्यार्थ का बाध होने पर उसके सहयोग से लक्ष्यार्थ बनता है—“गंगा तट पर बस्ती है।” इसका प्रयोजन गंगा–तट को अतिशय निकट, शीतल और पवित्र बतलाना है।
मुख्यार्थ के बाधित होने पर किसी प्रयोजन के द्वारा अर्थ ग्रहण होने पर प्रयोजनवती लक्षणा होती है। जैसे—“गंगा पर बस्ती है।” गंगा की धारा पर बस्ती नहीँ ठहर सकती, इसलिए मुख्यार्थ का बाध होने पर उसके सहयोग से लक्ष्यार्थ बनता है—“गंगा तट पर बस्ती है।” इसका प्रयोजन गंगा–तट को अतिशय निकट, शीतल और पवित्र बतलाना है।
“चौपड़ पर फूलमाली बैठे हैँ।” वाक्य मेँ, चौपड़ के मध्य मेँ फव्वारा या दूब आदि की सजावट होती है, उस जगह पर फूलमाली नहीँ बैठ सकते, अतः समीप के सम्बन्ध से चौपड़ के पास की जमीन या फुटपाथ पर फूलमाली बैठे हैँ, यह अर्थ प्रयोजनवती लक्षणा से निकलता है।
विद्वानोँ ने लक्षणा के—उपादान लक्षणा, लक्षणलक्षणा, शुद्धा, गौणी, सारोपा, साध्यवसाना आदि विविध भेदोपभेद माने हैँ। आचार्य मम्मट ने इसके प्रमुख छः भेद माने हैँ, जबकि विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ मेँ इसके अस्सी भेद बताये हैँ।
3. व्यंजना शक्ति –
जब वाक्य का सामान्य या अमुख्य अर्थ अभिधा और लक्षणा शब्द–शक्ति से नहीँ निकलता है, तब उसका कोई विशिष्ट अर्थ या चमत्कारी व्यंग्यार्थ जिस शक्ति से व्यक्त होता है, उसे व्यंजना शक्ति कहते हैँ।
जब वाक्य का सामान्य या अमुख्य अर्थ अभिधा और लक्षणा शब्द–शक्ति से नहीँ निकलता है, तब उसका कोई विशिष्ट अर्थ या चमत्कारी व्यंग्यार्थ जिस शक्ति से व्यक्त होता है, उसे व्यंजना शक्ति कहते हैँ।
व्यंजना के उदाहरण—
(1) तू ही साँच द्विजराज है, तेरी कला प्रमान।
तो पर सिव किरपा करि जान्यौ सकल जहान॥
प्रस्तुत दोहे मेँ कोई चन्द्रमा को सम्बोधित करके कह रहा है—“हे चन्द्रमा! तू ही सच्चा द्विजराज है, तेरी ही कला सार्थक है। सारा संसार जानता है कि शिवजी ने तेरे ऊपर कृपा की है।”
(1) तू ही साँच द्विजराज है, तेरी कला प्रमान।
तो पर सिव किरपा करि जान्यौ सकल जहान॥
प्रस्तुत दोहे मेँ कोई चन्द्रमा को सम्बोधित करके कह रहा है—“हे चन्द्रमा! तू ही सच्चा द्विजराज है, तेरी ही कला सार्थक है। सारा संसार जानता है कि शिवजी ने तेरे ऊपर कृपा की है।”
यहाँ पर द्विजराज, कला और शिव मेँ श्लिष्टार्थ लगाने पर भिन्न अर्थ की प्रतीति होती है, अर्थात् शिवाजी ने भूषण की कविता पर प्रसन्न होकर उन्हेँ दान दिया। यहाँ यह व्यंग्यार्थ भी निकल आता है।
(2) किसी ने अपने साथी से कहा—“संध्याकाल के छः बज गये हैँ।”
इस वाक्य मेँ ‘छः बजे’ के अनेक अर्थ लिये जा सकते हैँ, जैसे– कोई अर्थ लेगा कि अब घर जाना चाहिए, कोई स्त्री अर्थ लेगी कि गाय को दुहने का समय हो गया है, कोई भक्त अर्थ लेगा कि मन्दिर मेँ आरती का समय हो गया है। इसी प्रकार अनेक अर्थ लिये जा सकते हैँ।
इस वाक्य मेँ ‘छः बजे’ के अनेक अर्थ लिये जा सकते हैँ, जैसे– कोई अर्थ लेगा कि अब घर जाना चाहिए, कोई स्त्री अर्थ लेगी कि गाय को दुहने का समय हो गया है, कोई भक्त अर्थ लेगा कि मन्दिर मेँ आरती का समय हो गया है। इसी प्रकार अनेक अर्थ लिये जा सकते हैँ।
(3) प्राकृतिक सुषमा मेँ कमल तो कमल है।
इस वाक्य मेँ प्रथम ‘कमल’ शब्द का अर्थ सामान्य रूप से कमल है, परन्तु द्वितीय ‘कमल’ शब्द का अर्थ ‘सौन्दर्यातिशय (सबसे सुन्दर)’ है।
इस वाक्य मेँ प्रथम ‘कमल’ शब्द का अर्थ सामान्य रूप से कमल है, परन्तु द्वितीय ‘कमल’ शब्द का अर्थ ‘सौन्दर्यातिशय (सबसे सुन्दर)’ है।
(4) कोयल तो कोयल ही है।
इस वाक्य मे प्रथम ‘कोयल’ का अर्थ सामान्य कोयल है जबकि द्वितीय ‘कोयल’ शब्द का विशिष्ट अर्थ है– सब पक्षियोँ मेँ ज्यादा मधुर कूकने वाली।
इस वाक्य मे प्रथम ‘कोयल’ का अर्थ सामान्य कोयल है जबकि द्वितीय ‘कोयल’ शब्द का विशिष्ट अर्थ है– सब पक्षियोँ मेँ ज्यादा मधुर कूकने वाली।
(5) सुरेश के चेहरे पर बारह बजे हैँ।
सुरेश का चेहरा कोई घड़ी नहीँ है, फिर उस पर बारह कैसे बज सकते हैँ? इसका व्यंग्यार्थ यह है कि उसके चेहरे पर एकदम उदासी छा गई है।
सुरेश का चेहरा कोई घड़ी नहीँ है, फिर उस पर बारह कैसे बज सकते हैँ? इसका व्यंग्यार्थ यह है कि उसके चेहरे पर एकदम उदासी छा गई है।
(6) किसी चोर को डाँटते हुए थानेदार ने कहा कि तो तुम धन्ना सेठ हो?
इस वाक्य मेँ चोर को डाँटने के लिए थानेदार ने उसका उपहास करते हुए यह कहा है। चोर धन्ना सेठ कहाँ से हो सकता है?
इस वाक्य मेँ चोर को डाँटने के लिए थानेदार ने उसका उपहास करते हुए यह कहा है। चोर धन्ना सेठ कहाँ से हो सकता है?
व्यंजना शक्ति के द्वारा निकलने वाले अर्थ को प्रतीयमानार्थ, गम्यार्थ, अन्यार्थ, व्यंग्यार्थ एवं ध्वन्यर्थ भी कहते हैँ। व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने वाला शब्द ‘व्यंजक’ कहलाता है। अभिधा और लक्षणा केवल अर्थ बतलाकर शांत हो जाती हैँ, परन्तु व्यंजना काव्य–रचना के मूल स्वरूप को अथवा उसके उद्देश्य को व्यक्त करती है। व्यंजना के आधार पर ही किसी काव्य को उत्तम, मध्यम और अधम माना जाता है। इस प्रकार विशेष अर्थ निकालने वाली व्यंजना अन्तिम शब्द–शक्ति मानी जाती है।
♦ व्यंजना के भेद –
व्यंजना शब्द और अर्थ दोनोँ मेँ रहती है, इस कारण इसके दो प्रमुख भेद हैँ—शाब्दी व्यंजना और आर्थी व्यंजना।
व्यंजना शब्द और अर्थ दोनोँ मेँ रहती है, इस कारण इसके दो प्रमुख भेद हैँ—शाब्दी व्यंजना और आर्थी व्यंजना।
(1) शाब्दी व्यंजना –
जहाँ व्यंजना शक्ति से व्यक्त हुआ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर आश्रित रहता है, वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है। अनेकार्थवाची शब्दोँ के प्रयोग मेँ शाब्दी व्यंजना होती है, लेकिन इसमेँ शब्दार्थ नियन्त्रित रहता है। जैसे –
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्योँ न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
इस पद्यांश मेँ आये ‘वृषभानुजा’ और ‘हलधर’ शब्द के अनेक अर्थ हैँ, परन्तु यहाँ पर अर्थ नियन्त्रित होकर क्रमशः ‘राधा’ और ‘कृष्ण’ अर्थ लिया गया है।
जहाँ व्यंजना शक्ति से व्यक्त हुआ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर आश्रित रहता है, वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है। अनेकार्थवाची शब्दोँ के प्रयोग मेँ शाब्दी व्यंजना होती है, लेकिन इसमेँ शब्दार्थ नियन्त्रित रहता है। जैसे –
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्योँ न सनेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
इस पद्यांश मेँ आये ‘वृषभानुजा’ और ‘हलधर’ शब्द के अनेक अर्थ हैँ, परन्तु यहाँ पर अर्थ नियन्त्रित होकर क्रमशः ‘राधा’ और ‘कृष्ण’ अर्थ लिया गया है।
(2) आर्थी व्यंजना –
जहाँ व्यंजना शक्ति से व्यक्त हुआ व्यंग्यार्थ केवल अर्थ पर ही आश्रित रहता है, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है। जैसे –
सूर्य अस्त होने वाला है।
इसमेँ अभिधा से केवल ‘सूर्यास्त होना’ मुख्य अर्थ निकलता है, जबकि वक्ता, श्रोता या प्रकरण आदि के आधार पर इसके ये भिन्न–भिन्न व्यंग्यार्थ निकलते हैँ—गाय दुहने का समय हो गया। दीपक जलाने का समय हो गया। अब घर चलना चाहिए। कार्यालय का समय समाप्त हो गया। मित्र से मिलने का समय आ गया, इत्यादि। इसी प्रकार—
‘बाल मराल कि मन्दर लेही।’
इसका मुख्यार्थ है—छोटा हंस मन्दराचल को कैसे उठा सकता है? जबकि धनुष–यज्ञ के प्रकरण के अनुसार इसका व्यंग्यार्थ होता है—क्या नवयुवक श्रीराम भारी शिव–धनुष को नहीँ उठा सकते? इसमेँ काकु से व्यंग्यार्थ निकला है और यह अर्थ के सहारे व्यक्त हुआ है।
जहाँ व्यंजना शक्ति से व्यक्त हुआ व्यंग्यार्थ केवल अर्थ पर ही आश्रित रहता है, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है। जैसे –
सूर्य अस्त होने वाला है।
इसमेँ अभिधा से केवल ‘सूर्यास्त होना’ मुख्य अर्थ निकलता है, जबकि वक्ता, श्रोता या प्रकरण आदि के आधार पर इसके ये भिन्न–भिन्न व्यंग्यार्थ निकलते हैँ—गाय दुहने का समय हो गया। दीपक जलाने का समय हो गया। अब घर चलना चाहिए। कार्यालय का समय समाप्त हो गया। मित्र से मिलने का समय आ गया, इत्यादि। इसी प्रकार—
‘बाल मराल कि मन्दर लेही।’
इसका मुख्यार्थ है—छोटा हंस मन्दराचल को कैसे उठा सकता है? जबकि धनुष–यज्ञ के प्रकरण के अनुसार इसका व्यंग्यार्थ होता है—क्या नवयुवक श्रीराम भारी शिव–धनुष को नहीँ उठा सकते? इसमेँ काकु से व्यंग्यार्थ निकला है और यह अर्थ के सहारे व्यक्त हुआ है।
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Nice
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